जीवन परिचय
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पूरा नाम | गिरिजा शंकर बधेका |
जन्म | 15 नवम्बर, 1885 (चित्तल, सौराष्ट्र) |
अन्य नाम | ‘गिजुभाई बधेका’, ‘मोछाई माँ’ ( ‘मूंछों वाली मां’) ‘बच्चों का गांधी’ या ‘बाल शिक्षा का सूत्रधार |
बाल मंदिर की स्थापना | 1920 में |
अध्यापन मंदिर की स्थापना | 1925 में |
बालकथाएँ | ‘आनन्दी कौआ’, ‘चालाक खरगोश’,’बुढ़िया और बंदरिया,मां-जाया भाई सौ के साठ |
भाषा | गुजराती भाषा |
मॉन्टेसरी सम्मलेन | प्रथम (भावनगर-1925), द्वितीय (अहमदाबाद1928)-अध्यक्षता |
शिक्षा की अनुपम कृति | ‘ दिवास्वप्न ‘ और ‘ प्राथमिक शाला में भाषा ‘ |
मृत्यु | 23 जून, 1939 |

बाल केन्द्रित शिक्षण
गिजूभाई ने कहा कि “हमारे जीवन की पाठशाला में अध्ययन हेतु ऐसे प्रणाली को अपनायें ताकि उसमें सेवा की भावना, रात-दिन विकसित होती रहे।”
‘बालकों के गाँधी ‘ गिजूभाई-विद्यार्थी भवन एवं भवन के आचार्य के रूप में 4 वर्ष तक कार्य करने के बाद सन् 1920 में गिजूभाई ने दक्षिणामूर्ति विद्यार्थी भवन में एक ‘बालमन्दिर’ की स्थापना की। इस बाल मन्दिर में ढाई वर्ष की आयु से लेकर 6 वर्ष की आयु के बालकों को प्रवेश दिया जाता था। गिजूभाई इन बालकों के मध्य रहकर उन्हें शिक्षा प्रदान करते थे। गिजूभाई कहते थे बालकों को देवता मानो “बाल देवो भव” । खेल खिलाना, गाना गाना, काम करना, यन्त्र बजाना, गरबा नृत्य, काल रास रचाना, कविता पाठ करना, कहानी कहना अभिनय करना, प्रश्न एवं नाटक की योजना बनाना, पढ़ना-लिखना एवं बगीचा लगाना। फूल-पौधे लगाना, क्यारी लगाना, घूमना एव प्रकृति के दर्शनकाल आदि उस बाल विद्यालय की प्रमुख क्रियाकलापों और इन सभी के ऊपर बालक सेवा, परोपकार, त्याग, सहयोग, समाजसेवा आदि गुण एवं प्रक्रियाएँ महत्वपूर्ण र्थी। इन सभी कार्यों में गिजूभाई स्वयं साथ-साथ रहते, बालकों को बताते तथा सिखाते और बालकों को प्यार से कार्य में लगाते थे।

“शिक्षक को शाला में माता-पिता की भूमिका ही निभानी चाहिये। गिजूभाई का यह मानना था कि बालक के प्रति महत्वाकांक्षी होना चाहिये।”
गिजूभाई ने शिक्षण की बालकेन्द्रित विधियों को व्यवहारगत् करके उसे अनुमोदित किया। इनके अनुसार विभिन्न विषयों का शिक्षण निम्नलिखित प्रकार से होना चाहिये इस प्रकार गिजुभाई बालकों की स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक थे।
उन्होंने अपने शिष्यों से कहा – “मेरे छात्रों को मेरा आदेश है कि घोड़ों के अस्तबल जैसी धूल भरी इन शालाओं को जमींदोज़ कर दो। मारपीट और भय दिखाने वाले इन बाल कत्तलखानों की नीवों को बारूद भरकर उड़ा दो। इन्हें नेस्तानाबूद कर दो।”
बालकेन्द्रित पाठ्यक्रम
गिजुभाई के अनुसार शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो बालक को स्वावलंबी, निर्भय, सृजनशील या हुनरमंद और अभिव्यक्तिशील बनाये।अपने इसी विचार के आधार पर उन्होंने बच्चों को नैतिक शिक्षा देने वाली महात्मा गांधी की बालपोथी को अनुपयुक्त पाया तो उसकी आलोचना से भी नहीं चूके. बाद में उनकी आलोचना को सही ठहराते हुए गांधी जी ने स्वयं इस बालपोथी के प्रकाशन व वितरण का काम रोक दिया।
1.गिजूभाई के अनुसार मातृभाषा की शिक्षण विधि
गिजूभाई की एक और अनुपम कृति ‘प्राथमिक शाला में भाषा शिक्षण’ है। इस पुस्तक में एक शिक्षक और बालक के बीच की उस प्रक्रिया की चर्चा है, जिससे बालक के भाषा शिक्षण की बुनियाद तैयार होती है। गिजूभाई के अनुसार पहले वाचन पर बल देना चाहिये इसके पश्चात् लेखन पर। अँगुलियों से कलम पकड़ने का तरीका, पेन्सिल पर काबू, इच्छानुसार मोड़ना और विभिन्न आकृतियों से अक्षर आकृति तक आना लेखन की पहली आवश्यकता है। गिजुभाई के अनुसार लेखन से गति तथा सुनकर सही लिखने की आदत विकसित होती है।
2. गिजूभाई के अनुसार कविता शिक्षण
छात्रों का लोकगीतों के माध्यम से काव्य शिक्षण आरम्भ किया जाना चाहिये। लोकगीतों या ग्राम्य गीतों में स्पष्टता और उचित विषय वस्तु होने के कारण बालक उनकी ओर शीघ्र आकृष्ट होते हैं। बालक के सामने वह कविता रखी जाय जिसकी भाषा बोधगम्य हो। उस कविता की विषय वस्तु वर्णनात्मक या रुचिपूर्ण हो। कविता का परिचय गाकर भी कराया जा सकता है, उसे रटने की आवश्यकता नहीं होती। कविता की रसानुभूति होने पर ही पूर्ण आत्मसात हो जाती है। कविता के भाव विभिन्न मुद्राओं में प्रकट किये जाने चाहिये।
3. गिजूभाई के अनुसार व्याकरण शिक्षण
गिजूभाई के अनुसार अनेक शालाओं में व्याकरण शिक्षण का कालांश अलग होता है। ऐसा नहीं होना चाहिये क्योंकि व्याकरण भाषा शिक्षण का ही एक भाग है। पाठ में संज्ञा, क्रिया, सर्वनाम तथा विश्लेषण आदि की पहचान बालक को खेल-खेल में ही करानी चाहिये।
4.गिजूभाई के अनुसार इतिहास और भूगोल शिक्षण
बालकों के लिये कहानी के माध्यम से इतिहास विषय को पढ़ाने से विषय रोचक बन जाता है। कहानी के माध्यम से इतिहास विषय को पढ़ाते समय, शिक्षक को यह ध्यान रखना चाहिये कि मूल घटना के आसपास कल्पित घटनाओं को इस प्रकार सजाकर पढ़ाना चाहिये कि उन्हें वास्तविकता का ध्यान कहानी के माध्यम से ही हो जाये। भूगोल पढ़ाने में ग्लोब तथा मानचित्रों की सहायता लेकर तथ्यों को स्पष्ट करना चाहिये।
5. गिजूभाई के अनुसार चित्रकला शिक्षण
चित्रकला में बालकों को वस्तुओं के नाम या वह वस्तु देकर उनकी आकृति बनाने हेतु कहना चाहिये। प्रारम्भ में उनके चित्र सुन्दर न बन सके परन्तु अभ्यास से वे ठीक चित्र बनान लगेंगे। बाद में उनके पेंसिल से जैसा भी सम्भव हो चित्र बनवाने चाहिये। अच्छे चित्रों को प्रदर्शन हेतु रखवाना चाहिये। इससे बालकों को प्रोत्साहन मिलता है।
6. गिजूभाई के अनुसार धार्मिक शिक्षा
गिजूभाई के अनुसार बालकों की पाठ्य-पुस्तक में महान पुरुषों एवं ईश्वर के चित्र तथा उनके जीवन के प्रसंगों पर कथाएँ होनी चाहिये। धर्म से सम्बन्धित गूढ़ बातों को बालक नहीं समझ पाते। अत: उन्हें कुरान, उपनिषद् की कहानियाँ एवं कथाएँ कही जानी चाहिये। कर्मकाण्ड, श्लोक पाठ, धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन आदि को हम भविष्य के लिये छोड़ सकते हैं।
7.गिजूभाई के अनुसार खेलकूद
गिजूभाई के अनुसार नियत समय पर खेलने-कूदने हेतु बालकों को मुक्त किया जाना चाहिये। खेलने-कूदने का अर्थ खेलना, कूदना तथा मौज- भरना है। इसमें हारने-जीतने का कोई महत्व नहीं होना चाहिये। जीतने वालों को पुरस्कार आदि के वितरण से बालकों में हीन भावनाएँ जागृत हो जाती है।
गिजूभाई के अनुसार पाठ्यक्रम के द्वारा बालकों में विविध अनुभव संचित होने चाहिये-
(1) पाठ्यक्रम के अन्तर्गत विद्यालय के विविध अनुभव एव शाला की बौद्धिक क्रियाओं के द्वारा विविध अनुभव आने चाहिये।
(2) पाठ्यक्रम में स्मरण पर शक्ति पर अधिक महत्व दिया जाना चाहिये।
(3) पाठ्यक्रम के अन्तर्गत बौद्धिक शिक्षण के साथ-साथ शारीरिक शिक्षण को भी उचित स्थान मिलना चाहिये।
(4) पाठ्यक्रम में गिजूभाई आध्यात्मिकता का पुट देना चाहते थे तथा आध्यात्मिकता के माध्यम से सत्य, प्रेम के प्रति निष्ठा जैसे गुणों का विकास करना चाहते थे।
(5) गिजूभाई ने शिक्षण को बालकेन्द्रित बनाने के साथ-साथ तकनीकी के व्यवहारगत् प्रयोगों का भी अनुमोदन स्वतन्त्रता के उपरान्त पाठ्यक्रम को व्यापक अर्थ दिया जाने लगा है।
(6) विद्यालयी पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में गिजूभाई के विचारों की विशेषता यह है कि वे बालकों को अनावश्यक पुस्तकीय भार से तथा विषयों के भार से मुक्त रखना चाहते थे।
(7) उनके द्वारा प्रतिपादित विषय बाल मनोविज्ञान एवं बाल अवस्था के विकास के क्रम के अनुरूप थे। ऐसे ही सुझाव मॉण्टेसरी, फ्रॉबेल आदि विचारकों ने भी दिये।
बालकेन्द्रित शिक्षण विधियां
शिक्षण विधियों के सम्बन्ध में गिजूभाई के प्रमुख विचार निम्नलिखित प्रकार हैं-
(1) पूर्व विद्यालयी शिक्षण के क्षेत्र में प्रचलित परम्परागत विधियाँ, भाषण एवं पाठ्य- पुस्तक विधि का अन्त होना चाहिये।
(2) इस क्षेत्र में परिवर्तन एवं प्रयोग नितान्त आवश्यक हैं।
(3) पूर्व विद्यालयी शिक्षण में परिवर्तन की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्षेत्र शिक्षण विधियों में परिवर्तन है।
(4) पूर्व विद्यालयी शिक्षण क्षेत्र में औपचारिक विधियों का कोई स्थान नहीं होना चाहिये। इस क्षेत्र की विधियाँ अनौपचारिक, सहज करके सीखने के सिद्धान्त पर आधारित होनी चाहिये।
(5) गिजूभाई ने पूर्व विद्यालयी शिक्षण में मॉण्टेसरी पद्धति को अत्यन्त महत्वपूर्ण माना है तथा इसे बालक के सम्पूर्ण विकास के लिये उपयुक्त समझा है।
(6) पूर्व विद्यालयी शिक्षण के जिन विधियों पर गिजूभाई ने बल दिया है वे विधियाँ-नाटक पद्धति, कहानी पद्धति, भ्रमण पद्धति, अवलोकन पद्धति तथा मॉण्टेसरी पद्धति हैं।
मांटेसरी पद्धति (Montessori method) ढ़ाई से 6 वर्ष के बालकों के हेतु प्रयोग में लाई जाने वाली पद्धति है जिसका विकास बीसवीं सदी के प्रारंभ में डॉ॰ मारिया मांटेसरी द्वारा हुआ।मांटेसरी शिक्षा पद्धति ऐसी शिक्षा पद्धति है, जिसमें विशेषत: निर्देशन में वैयक्तिकता का स्थान है। इसके अतिरिक्त इस पद्धति में वैयक्तिकता को ही ध्यान में नहीं रखा जाता है। जबकि यह कर्म इंद्रियों की शिक्षा स्वयं शिक्षा भाषा शिक्षण आदि की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। मांटेसरी पद्धति में खर्च अधिक है ।
प्रमुख शिक्षण पद्धतियाँ – प्रश्नोत्तर पद्धति, जोड़ीदार पद्धति, नाट्य प्रयोग पद्धति, स्वशिक्षण पद्धति, श्रवण पद्धति, चलचित्र पद्धति, प्रत्यक्ष पद्धति, कक्षा पद्धति, उन्मेष पद्धति, खेल पद्धति, सिद्धांतमूलक और दृष्टांतमूलक पद्धतियाँ इत्यादि।
गिजूभाई का साहित्य
दिवास्वप्न , मान्तेसरी पद्धति , प्राथमिक विद्यालय में भाषा शिक्षा , प्राथमिक विद्यालय की शिक्षा पद्धतियाँ , माता-पिता से , ऐसे हों शिक्षक , बाल-शिक्षण जैसा मैंने समझा’ , प्राथमिक विद्यालय में व्यावसायिक शिक्षा , कथा-कहानी के अंतर्गत स्थापित हैं। इसके अतिरिक्त चलते-फिरते, शिक्षा, माँ-बाप बनना कठिन है ,माता-पिता की माथापच्ची , शिक्षकों से ,आदि रचनाओं से भी उनके विचारों पर प्रकाश पड़ता है।
‘दिवास्वप्न’ (1931) गिजुभाई के जीवन और सच्चे अनुभवों का निचोड़ है, जिसके माध्यम से उनकी कल्पना को मूर्तरूप दिया गया है। बाल शिक्षा के जगत में गिजूभाई की एक अनुपम कृति है ‘दिवास्वप्न’।
समकालीन साथी और सहयोगी स्वर्गीय श्री हरिभाई द्विवेदी ने लिखा है कि-“दिवा स्वप्न सचमुच दिव्य है। कला के प्राथमिक शाला की समालोचना इस पुस्तक में प्राप्त होती है। साथ ही साथ भविष्य की नवीन प्राथमिक पाठशाला की मनोहर एवं स्पष्ट रूप की सुन्दर झाँकी मिलती है।”
“मुझको किसी ने कहा कि भारी – भरकम तात्त्विक लेखों के बजाय यदि मैं कथा – शैली में शैक्षिक विचारों को संजोऊं , तो ? मुझको प्रयत्न करने की प्रेरणा मिली और फलस्वरूप यह ‘ दिवास्वप्न ‘ रचा गया ! दिवास्वप्नों का मूल वास्तविक अनुभव हो , तो वे मिथ्या नहीं जाते । यह दिवास्वप्न मेरे जीवंत अनुभवों में से उपजा है , और मुझे विश्वास है कि प्राणवान , क्रियावान , निष्ठावान शिक्षक अपने लिए भी इसे वास्तविक स्वरूप प्रदान कर सकेंगे । – गिजुभाई
“यद्यपि लगभग तीस वर्ष बीत चुके हैं , फिर भी ‘ दिवास्वप्न ‘ और ‘ प्राथमिक शाला में भाषा ‘- शिक्षा , दोनों आज भी उतनी ही ताजी , उतनी ही प्रेरक और मार्गदर्शक हैं , जितनी 30-35 साल पहले थीं । प्राथमिक पाठशालाओं की पढ़ाई में जो भारी दोष आ घुसे हैं , उनकी ओर इशारा करके उसके रूप – स्वरूप को बदलने की अत्यन्त मूलगामी , मूल्यवान और व्यावहारिक सूचनायें इन दोनों मौलिक पुस्तकों में भरी पड़ी हैं । इन पुस्तकों के अध्ययन , अनुशीलन और अनुसरण से नई पीढ़ी के उत्साही और निष्ठावान शिक्षक भाई – बहनों को अपनी शिक्षा पद्धति में आमूल परिवर्तन करने की स्वस्थ और सबल प्रेरणा मिल सकेगी । इसी एक विचार से प्रेरित होकर मैंने इन्हें फिर छपाने का साहस किया है । आशा है , नई पीढ़ी के शिक्षक , शिक्षाधिकारी और शिक्षा संस्थाओं के कर्ता – धर्ता इन दोनों पुस्तकों को अपनाकर इनसे भरपूर लाभ उठायेंगे ।“ – काशिनाथ त्रिवेदी
बालकेन्द्रित अनुशासन
इनके द्वारा अनुशासन निम्नलिखित प्रकार का होना चाहिये-
(1) बालकों के अनुशासन के विषय में गिजूभाई इस प्रकार सोचते थे, वस्तुत: हम हमारी मान्यताओं को बालक पर लादने के लिये इनाम एवं सजा देने के लिये दमनात्मक साधनों का प्रयोग करते हैं। बालों के मन में यह स्थिति जेल की प्रथम सजा जैसी है।
(2) दण्ड के भय से तभी तक अनुशासन रहता है, जब तक दण्ड का भय स्थिर रहता है जैसे ही दण्ड का भय चला जाता है। अनुशासन भी समाप्त हो जाता है। दण्ड का भय स्थिर नहीं रह सकता। अतः अनुशासन बालकों पर बहुत समय पर लागू नहीं रह सकता।
(3) माँ-बाप तथा शिक्षक इस बात को समझ लें कि मारने या ललचाने से बालकों में उच्छृखलता आती है। भय और लालच से बालक ढीठ-हीन बन जाते हैं।
दक्षिणमूर्ति छात्रावास की स्थापना
गीजू भाई अपने पुत्र की शिक्षा के सिलसिले में जब छोटे बच्चों के विद्यालय में गए तो उन्हें मांटेसरी पद्धति की एक पुस्तक मिली। उसका गीजू भाई पर बड़ा प्रभाव पड़ा। 1915 में उन्होंने दक्षिणामूर्ति (बाला भवन) की स्थापना में सहायता की और फिर भावनगर में एक छात्रावास शुरू किया। 1916 में, उन्होंने अपनी कानूनी प्रैक्टिस छोड़ दी और दक्षिणामूर्ति में सहायक अधीक्षक के रूप में शामिल हो गए। नाना भाई भट्ट इसमें उनके सहयोगी थे। शिक्षा की नई पद्धति के प्रयोग के लिए शिक्षकों का प्रशिक्षण आवश्यक समझ कर गीजू भाई के आचार्यत्व में ‘दक्षिणमूर्ति’ को अध्यापक प्रशिक्षण केन्द्र का रूप दे दिया गया।जिस साल उन्होंने दक्षिणमूर्ति अध्यापक मंदिर स्थापित किया, उसी साल शीरामती ताराबाई मोदक के साथ मिलकर गुजराती में ‘शिक्षण पत्रिका’ का प्रकाशन किया।