रवीन्द्रनाथ टैगोर के शैक्षिक विचार/रवीन्द्रनाथ टैगोर के शैक्षिक दर्शन
जीवन परिचय (संक्षिप्त)
Table of Contents
जन्म और स्थान | 7 मई 1861, जोड़ासाँको हवेली,कलकत्ता (13वें एवं सबसे छोटे,छोटी उम्र में ही खो दिया था) |
पिता का नाम | देवेंद्रनाथ टैगोर |
माता का नाम | शारदा देवी |
पत्नी का नाम | मृणालिनी देवी (1883 को) |
बच्चे | रेणुका टैगोर, शामिंद्रनाथ टैगोर, मीरा टैगोर, रथिंद्रनाथ टैगोर और मधुरनथ किशोर |
पेशा | लेखक, गीत संगीतकार, नाटककार, निबंधकार, चित्रकार |
भाषा | बंगाली, अंग्रेजी |
पुरस्कार | साहित्य में नोबेल पुरस्कार (गीतांजलि-1913) 1915 ईस्वी में इंग्लैंड के राजा जार्ज पंचम ने टैगोर को तत्कालीन वायसराय लार्ड हार्डिंग से ‘नाइटहुड’ (टाइटल- सर ) प्रदान किया। परन्तु , 13 अप्रैल 1919 के जलियाँवाला बाग़ कांड से क्षुब्ध होकर टैगोर ने इसका स्वैक्षिक परित्याग कर दिया। |
निधन | 7 अगस्त, 1941 जोड़ासाँको हवेली, कलकत्ता (4 वर्ष बीमारी से लड़ने के बाद) |
शिक्षा दर्शन पर आधारभूत सिद्धांत-
श्री एस. सी. सरकार ने लिखा है-“उन्होंने स्वयं ही शिक्षा के उन सभी सिद्धान्तों की खोज की जिनका आगे चलकर उन्हें अपने लिए प्रतिपादन करना था और अपने ‘शान्ति निकेतन’ के प्रयोग में काम में लाना था।”
1.बालक की शिक्षा उसकी मातृभाषा में हो।
2. बालक को स्वतंत्रता दी जाए।
3. बालक की रचनात्मक प्रवृत्तियों (creative tendencies) के विकास के लिए आत्म प्रकाशन का अवसर।
4. बालक की शिक्षा नागरो से दूर प्रकृति की गोद में (In Lap of Nature) हो।
5.शिक्षा द्वारा बालक की समस्त शक्तियों का सामंजस्य पूर्ण विकास हो।
6.बालक को करके सीखने (Learning By Doing) का अवसर मिले ।
शिक्षा की धारणा
शिक्षा की अर्थ–
टैगोर का ‘शिक्षा’ अत्यंत व्यापक अर्थों वाला था-शिक्षा जो बालक का सर्वांगीण विकास करे। बालक को स्वतंत्रता प्राप्त हो,वे प्रकृति की गोद में करके सिखने से रचनात्मकता की प्रवृत्ति का विकास कर सत्यम, शिवम, सुंदरम, जैसे मूल्यों को आत्मसात करें । टैगोर के शिक्षा का सर्वोच्च प्राप्ति ‘पूर्ण मनुष्यत्व’ को प्राप्त करना है मनुष्य का शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक और आध्यात्मिक विकास पूर्ण होना चाहिए।
टैगोर के अनुसार-“सच्ची शिक्षा संग्रह किये गये लाभप्रद ज्ञान के प्रत्येक अंग के प्रयोग करने में उस अंग के वास्तविक स्वरूप को जानने में और जीवन में जीवन के लिए सच्चे आश्रय का निर्माण करने में निहित है।”
उन्होंने अपनी पुस्तक ‘Personality’ में लिखा है- “सर्वोत्तम शिक्षा वही है, जो सम्पूर्ण सृष्टि से हमारे जीवन का सामंजस्य स्थापित करती है।” “The highest Education is that which makes in our life harmony with all existence.”
टैगोर के अनुसार- “उच्चतम शिक्षा वो है जो हमें सिर्फ जानकारी ही नहीं देती बल्कि हमारे जीवन को समस्त अस्तित्व के साथ सद्भाव में लाती है।”
शिक्षा के उद्देश्य–
1. शारीरिक विकास –
रवींद्रनाथ टैगोर का कथन है कि-“पेड़ों पर चढ़ने, तालाबों में डुबकी लगाने, फलों को तोड़ने और बिखेरने और प्रकृति माता के साथ नाना प्रकार की शैतानियां करने से बालकों के शारीरिक विकास का मस्तिष्क का आनंद और बचपन के स्वाभाविक आवेगो की संतुष्टि प्राप्त होती है।”
2. मानसिक या बौद्धिक विकास –
उन्होंने पुस्तकों की बजाय प्रकृति और जीवन की वास्तविक परिस्थितियों से प्रत्यक्ष रूप से ज्ञान प्राप्त करने पर अधिक बल दिया है।
रविंद्र नाथ टैगोर का कथन है-“पुस्तकों की बजाय प्रत्यक्ष रूप से जीवित व्यक्ति को जानने का प्रयास करना शिक्षा है। इससे ना केवल कुछ ज्ञान प्राप्त होता है बल्कि इससे जानने की शक्ति का विकास होता है। यह कक्षा में सोने जाने वाले व्याख्यानो से होना संभव है। यदि हमारे मस्तिष्क के संदेशों और कल्पना को वास्तविकता से पृथक कर दिया जाता है, तो वह निर्बल तथा विकृत हो जाते हैं।”
3. संवेगात्मक विकास –
बालक के शरीर, मन तथा संवेगो, तीनों का संपूर्ण विकास चाहते थे। अतः उन्होंने शारीरिक तथा मानसिक विकास के साथ-साथ संवेगात्मक विकास पर भी बल दिया है। उनके अनुसार कविता, संगीत, चित्रकला, नृत्य कला इत्यादि के द्वारा बालकों को संवेगात्मक प्रशिक्षण प्रदान करना चाहिए जिससे उनमें सौंदर्य, प्रेम, सहानुभूति इत्यादि स्वस्थ भावनाओं का विकास हो सके।
4. सामंजस्य की क्षमता का विकास –
जीवन की वास्तविक परिस्थितियां, विभिन्न सामाजिक स्थितियों तथा पर्यावरण की जानकारी कराई जाए और उनसे सामंजस्य स्थापित करने की क्षमता का विकास किया जाए।
रविंद्र नाथ टैगोर का कथन है-“इस समय हमारा ध्यान चाहने वाली प्रथम और महत्वपूर्ण समस्या है हमारी शिक्षा और हमारे जीवन में सामंजस्य स्थापित करने की समस्या।”
5. सामाजिक विकास –
यद्यपि टैगोर ने प्राकृतिक शिक्षा पर अधिक बल दिया किंतु उन्होंने बालक के सामाजिक विकास पर भी बल दिया है। उनका विचार था कि बालको में सामाजिक गुणों का विकास करना शिक्षा का एक अति महत्वपूर्ण उद्देश्य है। तभी वह स्वयं तथा समाज की प्रगति में हाथ बटा सकेंगे।
6. नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास
टैगोर ने शिक्षा का एक और महत्वपूर्ण उद्देश्य बताया, बालकों का नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास। इस विकास के लिए टैगोर ने अनेक नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों तथा आदर्शों को बताया जैसे अनुशासन का मूल्य, शांति और धैर्य का मूल्य, मनुष्य के आंतरिक विकास का मूल्य आदि। अनुशासन के मूल्य से टैगोर का तात्पर्य बालको में आत्म अनुशासन का विकास करना है।
रवीन्द्रनाथ टैगोर-“जो आध्यात्मिक शिक्षा हमारे ग्रंथो में दी गयी है वो, वह शक्ति है जो कि बाह्य एवं आंतरिक शांतिपूर्ण संतुलन से ही बन पाती है।”
6. राष्ट्रीयता का विकास (Development of nationalism) – रवीन्द्रनाथ टैगोर राष्ट्रवादी होने के नाते शिक्षा को राष्ट्रीय जागृति का उत्तम एवं सफल साधन मानते थे। उन्होंने अपने विचारों, लेखों एवं कविताओं के द्वारा व्यक्तियों को राष्ट्र प्रेम की ओर आकर्षित किया और उन्हें राष्ट्रीय एकता की अनुभूति करायी।
7. अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास (Development of international attitude) – टैगोर के अनुसार शिक्षा का अन्तिम उद्देश्य बालक में अन्तर्राष्ट्रीय समाज के प्रति चेतना उत्पन्न करना है। वे विश्व में एकता स्थापित करना चाहते थे। अत: वे चाहते थे कि शिक्षा के द्वारा बालक को अन्तर्राष्ट्रीय समाज के बन्धन में बाँधा जाय जिससे वह अन्तर्राष्ट्रीय समाज के विकास हेतु प्रयास करता रहे।
8.मानवतावादी सोच का विकास – ‘मानवतावाद’ टैगोर के सर्वोच्च प्राथमिकता थी। वे इसे देशभक्ति से भी ऊपर मानते थे।
” देशभक्ति हमारा आखिरी आध्यात्मिक सहारा नहीं बन सकता, मेरा आश्रय मानवता है। मैं हीरे के दाम में काँच नहीं खरीदूंगा और जब तक मैं जिंदा हूं मानवता के ऊपर देशभक्ति की जीत नहीं होने दूंगा। “
शिक्षण विधियां
टैगोर पर राष्ट्रीय चेतना के आलावा पश्चिमी देशों के शिक्षाशास्त्रियों, विशेष तौर से रूसो (Rousseau), फ्रोबेल (Froebel), ड्युवी (Dewey) तथा पेस्टालॉजी (Pestalozzi) के विचारों का भी प्रभाव पड़ा । इन प्रभावों को उनके शैक्षिक विधियों में छाप दिखती है-
1. भ्रमण के समय पढ़ना (During the walking time) –
टैगोर के ही शब्दों में-“भ्रमण के समय पढ़ना शिक्षण की सर्वोतम विधि है।”
2. वाद-विवाद तथा प्रश्नोत्तर विधि (Discussion and question-answer method)
3. क्रिया विधि (Activity method)
4. मातृभाषा द्वारा शिक्षण (Teaching through mother language)
टैगोर मातृभाषा को शिक्षा का सरलतम माध्यम समझते थे। उन्होंने कहा कि विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देना अनुचित है।
5. खेल द्वारा शिक्षण (Teaching through play)
6. स्वानुभव द्वारा शिक्षण (Learning through experience)
टैगोर ने इन सिद्धान्तों पर आधारित जिन शिक्षण विधियों का समर्थन किया है उनमें से अधोलिखित प्रमुख हैं-
1. क्रियाविधि
2. भ्रमण विधि
3. वाद-विवाद
4. प्रश्नोत्तर विधि
पाठ्यक्रम
टैगोर के अनुसार शिक्षा का मुख्य उद्देश्य पूर्ण जीवन की प्राप्ति के लिए मनुष्य का पूर्ण विकास करना। इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए उन्होंने पाठ्यक्रम में विभिन्न प्रकार के अनेक विषयों को शामिल किया है-
विषय-इतिहास, भूगोल, विज्ञान, प्रकृति विज्ञान, साहित्य आदि।
क्रियाएं-बागवानी, अभिनय, भ्रमण, ड्राइंग, प्रयोगशाला कार्य, अजायबघर के लिए वस्तुओं का संग्रह तथा क्षेत्रीय अध्ययन आदि।
पाठांतर क्रियाएं-समाज सेवा, छात्र स्वशासन, खेलकूद आदि।
उपर्युक्त विषयों एवं क्रियाओं से स्पष्ट है कि टैगोर का पाठ्यक्रम विषय प्रधान ना होकर क्रिया प्रधान रहा है।
उन्होंने पाठ्यक्रम की दृष्टि से समन्वयवादी विचारधारा को महत्व दिया। उन्होंने पाठ्यक्रम के 4 मूलभूत सिद्धांत प्रतिपादित की है –
1.प्राच्य आध्यात्मिक संस्कृति तथा पाश्चात्य विज्ञान का समन्वय।
2.उपयोगिता वादी तथा कलात्मक शिक्षा के मध्य समन्वय।
3.धर्मनिरपेक्षता तथा नैतिक आध्यात्मिक शिक्षा के मध्य समन्वय।
4.राष्ट्रीयता एवं अंतर्राष्ट्रीयता के बीच समन्वय।
विद्यालय
- विद्यालय प्राचीन गुरु आश्रमों के समान हो ।
- शांत वातावरण प्रकृति की सुरम्य गोद में स्थित हो-रूसो की भांति टैगोर भी प्रकृति को बालक की शिक्षा को सर्वश्रेष्ठ साधन मानते थे।
- विद्यालय संपूर्ण जीवन एवं उसके विभिन्न पहलुओं से संबंधित हो ।
- विद्यालय राष्ट्र की संस्कृति को सुरक्षित रखने और उसमें विभिन्न ढंग से कला संगीत साहित्य एवं अन्य विषयों के द्वारा प्रदान करें ।
उन्होंने (टैगोर) लिखा है- “प्रकृति के पश्चात बालक को समाजिक व्यवहार की धारा के संपर्क में आना चाहिए।”
“विद्यालय-विश्वविद्यालय कारखानों के रूप के होते हैं, जहाँ महापुरुषों का निर्माण किया जाता है, जिनका निर्माण शिक्षक रूपी कारीगरों से होता है।”
शिक्षक
शिक्षक के विषय में टैगोर के विचार पूर्णतया परम्परावादी थे।। टैगोर ने शिक्षण विधि की तुलना में शिक्षक को बहुत अधिक महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करते हुए लिखा है, “शिक्षा केवल शिक्षक के द्वारा और शिक्षण विधि द्वारा कदापि नहीं दी जा सकती। अतः शिक्षक को पूर्वाग्रही, संकीर्ण, असहिष्णु, आधीन और अहंकारी नहीं होना चाहिये।” इस प्रकार टैगोर शिक्षक को शिक्षा व्यवस्था का मुख्य आधार मानते हैं।
– “शिक्षा केवल शिक्षक के द्वारा दी जा सकती है शिक्षण विधि के द्वारा कदापि नहीं दी जा सकती है। मनुष्य केवल मनुष्य से ही सीख सकता है।”
शिक्षकों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा है – “किसी अबोध बच्चे की शिक्षा, उसके ज्ञान को अपने दिए हुए ज्ञान तक सीमित मत रखिये। याद रखिये वह किसी और समय में पैदा हुआ है।”
अनुशासन
टैगोर बाह्य अनुशासन में विश्वास नहीं करते हैं। वे स्वाभाविक अनुशासन पर बल देते हैं। स्वाभाविक अनुशासन को आत्मानुशासन या आन्तरिक अनुशासन भी कहते हैं। स्वाभाविक अनुशासन का अर्थ स्पष्ट करते हुए टैगोर ने लिखा है-
“स्वाभाविक अनुशासन का अर्थ अपरिपक्व स्वाभाविक आवेगों की समुचित उत्तेजना और अनुचित दिशाओं में विकास से सुरक्षा है। स्वाभाविक अनुशासन की स्थिति में रहना छोटे बच्चों के लिए सुखदायक है। यह उनके पूर्ण विकास में सहायक होता है।”
रवीन्द्रनाथ टैगोर और शांतिनिकेतन
शांतिनिकेतन की स्थापना का प्रारम्भ 1863 में होती है जब रविंद्र नाथ टैगोर के पिता देबेन्द्रनाथ टैगोर ने बोलपुर,जिला-बीरभूम में एक आश्रम की स्थापना की। 22 दिसंबर 1901 में रविंद्र नाथ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र सहित 5 छात्रों के साथ यहीं पर शांति निकेतन की स्थापना की।
1921 के अंत में शान्तिनिकेतन का विस्तार ‘विश्वभारती विश्वविद्यालय‘ के रूप में किया गया। सन् 1951 में भारतीय संसद में ‘विश्वभारती’ को केन्द्रीय विश्वविद्यालय के रूप में मान्यता दी। श्रीनिकेतन बोलपुर,जिला-बीरभूम में ही शांतिनिकेतन से थोड़ी दूर पर है जिसे आज विश्व भारती का ‘दूसरा कैंपस’ के रूप में जाना जाता है।
टैगोर ने 1924 में एक अन्य विद्यालय –‘शिक्षा सत्र ‘ को प्रारम्भ किया। वस्तुतः ,यह गरीब और अनाथ बच्चों के लिए था और शांति निकेतन का ही शाखा था। इसके संचालक टैगोर के मित्र के पुत्र संतोष कुमार मजूमदार थे। ‘शिक्षा सत्र ‘ नामकरण मजूमदार की ही देन थी। लेकिन ,’शिक्षा सत्र’ के महत्वपूर्ण शैक्षिक प्रयोगों को टैगोर के उपरांत विस्मृत कर दिया गया और वह एक सामान्य विद्यालय बन गया।
मूल्यांकन
टैगोर के शैक्षिक विचारों का मूल्यांकन करते हुए एच० वी० मुखर्जी ने लिखा है- “टैगोर आधुनिक भारत में शैक्षणिक पुनरुत्थान के सबसे बड़े पैगम्बर थे। उन्होंने अपने देश के सामने शिक्षा के सर्वोच्च आदशों को स्थापित करने के लिए निरन्तर संघर्ष किया। उन्होंने अपनी शिक्षा संस्थाओं में शैक्षणिक प्रयोग सम्पादित किये जिन्होंने उनके आदर्शों का सजीव प्रतीक बना दिया।”
उनकी मृत्यु पर गुरूदेव के प्रशंसक महात्मा गाँधी ने कहा था –“गुरूदेव के पार्थिव शरीर की राख पृथ्वी में मिल गई है, लेकिन उनके व्यक्त्वि का प्रकाश सूर्य की ही तरह तब तक बना रहेगा जब तक पृथ्वी पर जीवन है… गुरूदेव एक महान अध्यापक ही नहीं थे वरन् एक ऋषि थे।”
महत्वपूर्ण परीक्षापयोगी तथ्य
- उनकी प्रमुख कृतियों में-गीतांजलि, गीताली, गीतिमाल्य, कथा ओ कहानी, शिशु, शिशु भोलानाथ, कणिका, क्षणिका, खेया आदि प्रमुख हैं।
- उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया जो कि पहले गैर-यूरोपीय नोबेल पुरस्कार विजेता के रूप में भी जाने जाते हैं।नोबेल पुरस्कार प्राप्त टैगोर दुनिया के संभवत: एकमात्र ऐसे कवि हैं जिनकी रचनाओं को दो देशों ने अपना राष्ट्रगान बनाया। उन्होंने दो हजार से अधिक गीतों की रचना की।
- ‘अमर शोनार बांग्ला’1905 में बंग-भंग के दौरान लिखी गयी,1971 में बांग्लादेश अपने आस्तित्व में आते हीं इसे राष्ट्र-गान के रूप में स्वीकृत कर लिया।
- जन-गण-मन 1911 में रचित एवं सर्वप्रथम 27 दिसंबर 1911 के कलकत्ता अधिवेशन में गायी गई। जबकि, 24 जनुअरी 1950 को संविधान सभा ने इसे राष्ट्रगान घोषित कर दिया।
- टैगोर जी बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे क्योंकि उन्होंने केवल 8 वर्ष की उम्र में ही कविताओं को पढ़ना शुरू कर दिया था। 16 वर्ष की उम्र तक टैगोर जी ने कला कृतियों की रचना करनी शुरू कर दी। इसके अतिरिक्त छद्म नाम भानुसिंह के तहत उन्होंने अपनी कविताओं को प्रकाशित करने का कार्य भी शुरू कर दिया था। रबिन्द्रनाथ टैगोर ने , लगभग 2230 गीतों की रचना की .
- अपने प्रारंभिक जीवन को शुरू करते हुए रबीन्द्रनाथ टैगोर जी ने 1877 में लघु कथा ‘भिखारिनी’ और 1982 में कविता संग्रह ‘संध्या संगत’ की रचना भी कर दी थी। इसके अतिरिक्त रबीन्द्रनाथ टैगोर जी 1873 में अपने पिताजी के साथ अमृतसर की यात्रा की और वहां पर उन्होंने सिख धर्म से ज्ञान प्राप्त किया। सिख धर्म से प्राप्त अनुभव से उन्होंने बाद में 6 कविताओं और धर्म पर कई लेखों को कलमबद्ध करने के लिए इस्तेमाल किया।
- उन्होंने 60 की उम्र में पेंटिंग करना शुरू कर दिया और उन्होंने अपने जीवन काल में 2000 से भी अधिक चित्र रचनाएं की हैं और यह सभी अन्य देशों में भी प्रदर्शित हो चुकी है
- यह ही नही रबिन्द्रनाथ टैगोर अपने जीवन मे तीन बार अल्बर्ट आइंस्टीन जैसे महान वैज्ञानिक से मिले जो रबिन्द्रनाथ टैगोर जी को ‘रब्बी टैगोर ‘कह कर पुकारते थे .
- शिक्षा से संबंधित इनकी रचना- शिक्षा हेरफेर 1892 ,’शिक्षा’ (1908) प्रकाशितविश्वविद्यालय 1911, धर्म शिक्षा 1912, शिक्षा विधि 1912, स्त्री शिक्षा 1915, हाई स्कूल 1915 , विश्व भारती 1919 , श्री निकेतन 1927 , आइडियल्स आफ़ एजुकेशन 1929, शिक्षा सार कथा 1930, माई एजुकेशन मिशन 1931, टू दी स्टूडेंट्स 1935, शिक्षा और संस्कृति 1935 और गुरुकुल कांगड़ी 1941
- कहानियां-काबुलीवाला, मास्टर साहब और पोस्ट मास्टर
- 1915 ईस्वी में इंग्लैंड के राजा जार्ज पंचम ने टैगोर को तत्कालीन वायसराय लार्ड हार्डिंग से ‘नाइटहुड’ (टाइटल- सर ) प्रदान किया। परन्तु ,13 अप्रैल 1919 के जलियाँवाला बाग़ कांड से क्षुब्ध होकर टैगोर ने इसका स्वैक्षिक परित्याग कर दिया।
- उल्लेखनीय है की जलियाँवाला बाग़ कांड से क्षुब्ध होकर महात्मा गाँधी ने 1915 में ही प्राप्त ‘कैसर-ए-हिन्द‘ और जमनालाल बजाज ने ‘राय बहादुर’ की उपाधि लौटाई थी।
- 1905 में बंग-भंग के दौरान लिखी गयी,1971 में बांग्लादेश अपने आस्तित्व में आते हीं इसे राष्ट्र-गान के रूप में स्वीकृत कर लिया।
- जन-गण-मन 1911 में रचित एवं सर्वप्रथम 27 दिसंबर 1911 के कलकत्ता अधिवेशन में गायी गई। जबकि, 24 जनुअरी 1950 को संविधान सभा ने इसे राष्ट्रगान घोषित कर दिया।